कहाँ से लाए इतनी नफ़रत?
क्या सड़क पे मिला पाया?
या फिर तुम्हारे मन के उन अंधेरे कमरों की नमी
में पनपा है यह?
कहाँ छुपाए थे इतनी नफ़रत?
क्या आपकी सादगी के मुखोटे में है ये भी समाया?
या फिर तुम्हारे अंदर के बेबसपन डर की खाद से पनपा है यह?
अरे तुम धूप में तो आओ,
मुझे से हाथ तो मिलाओ,
अपने अंदर के भेद को, एक गैर से मिलाओ,
थोड़ा साथ में समय बिताओ,
दो रोटी आचार के साथ खाओ, चाय की दो चुस्की लगाओ,
वोही नर्म धूप, वोही नीला आसमान,
वोही प्यास, वोही भूख, हिंदू हो या मुसलमान
जब अगली बार दंगाई आएँ,
हिंदू नही, मुसलमान नही,
अपनो की और गैरों की ढाल बनो तुम, खाल बनो तुम,
शांतिप्रस्त मिसाल बनो तुम,
नेताओं के लिए सवाल बनो तुम,
नफ़रत के लिए बवाल बनो तुम,
फिर साथ में सोच दौड़ाओ ,
किसका फाइयदा, ऩफा किसका?
कौन यतीम, कौन विधवा?
और कौन बैठा दूर कहीँ, अपने महल की आबादी में?
और तुम्हे छोड़ा जीवन की बर्बादी में?
कहाँ से लाए इतनी नफ़रत?
मैं भी तो उसी हवा और पानी का हूँ,
मिट्टी और आसमान का हूँ,
मुझमे तो नही हैं ऐसे आतिश,
मैं भी तो इस देस का हूँ, समय का हूँ, हालत का हूँ,
अरे तुम मेरे आँगन में आओ,
आपबीती बताओ, दो आंसूं बहाओ,
मतभेद मिटाओ, दोस्ती का हाथ बढ़ाओ
मुझ में अपना साथी पाओ,
इन नेताओं की गरज ठुकराओ,
अपना अतीत छोड़, वर्तमान सवारो,
भविष्या छोड़, अपना अपना हृदय बड़ा बनाओ